उत्तरऔपनिवेशिक राष्ट्रवादी पहचान की भूल-भुलैया
मोहम्मद अली जिन्ना पर शुरू हुआ यह विवाद उत्तरऔपनिवेशिक राष्ट्रवादी पहचान के संकट और भटकावों को एक बार फिर रेखांकित
करता है।धर्म , राषट्रीय-अस्मिता और आधुनिक राष्ट्र- राज्य के असहज और जटिल रिश्ते की
तल्ख़ी एक बार फिर उजागर होकर सामने आ रही है।
उत्तरऔपनिवेशिक मध्यवर्ग की एक परेशानी यह है कि वह आधुनिक राष्ट्र-राज्य को
अंगीकार भी करना चाहता है और
नकलची होने से भी बचना चाहता है।प्रमाणिक अस्मिता की तलाश उत्तरऔपनिवेशिक
मध्यवर्ग के एक तबके को अगर एक ओर धर्म(हिन्दुत्व या इस्लाम) की सर्वथा
अविवेचनात्मक(uncritical) व्याख्या के बचाव के लिए और उस पर
आधारित राजनीतिक- सामाजिक गोलबंदी की ओर प्रेरित करता है , तो
दूसरी ओर उसकी जीवन-शैली आधुनिक राष्ट्र-राज्य को उसके लिए अपरिहार्य बना देती
है।उसे धर्म आधारित राष्ट्रीय पहचान तो चाहिए लेकिन धार्मिक शासन(theocracy) में वह
असहज महसुस करता है। मध्यवर्ग की इस भावनात्मक उलझन का एक हद तक
व्यावहारिक राजनीतिक उपयोग करने के बाद जिन्ना और आडवाणी जैसे नेता खुद ही इसमें
उलझ जाते हैं।
जिन्ना के व्यक्तित्व और राजनीतिक जीवन में हम जिस नाटक को घटित होता देख चुके हैं
उसी का प्रतिबिम्ब(mirror-image perceptions) हमें भाजपा नेतृत्व की इस खींचतान में
देखने को मिल
रहा है जिसके केन्द्र में फिलहाल आडवाणीजी हैं।
वैसे गाँधीवादी सर्वधर्म समभाव बनाम नेहरूवादी शास्त्रीय
धर्मनिरपेक्षता की बहस,नेहरू बनाम जिन्ना की बहस से अधिक सर्जनात्मक है, लेकिन
फिलहाल उसकी हलचल अकादमिक जगत के भीतर ही है।
1 Comments:
मनोज जी, जिन्ना या आडवाणी को सत्ता पाने के लिये धर्म के दुरुपयोग से कोइ परहेज नहीं था, लेकिन इनके अनुसार सत्ता चलाने के लिये धर्मर्निपेक्षता का ढोंग करना जरूरी है। आडवाणी का र्दुभाग्य ये है कि उसने धर्मर्निपेक्षता का ढोंग करने मे देर कर दिया क्योंकि अब आडवाणी के हाथ से सत्ता जा चुका है।
रुपेश, लंदन
Post a Comment
<< Home