Monday, September 04, 2006

अगर सही तर्क नहीं है...

पिछले दिनों संसद के 'ऊपरी सदन' में धूमिल की एक कविता को लेकर बड़ा बवाल हुआ। राज्‍य सभा के सांसदों के बीच अद्‍भुत एकता कायम हुई। कुछ अन्‍य रचनाओं के अतिरिक्‍त सुदामा पाण्‍डेय धूमिल की कविता 'मोचीराम' को लेकर सांसद खासे परेशान रहे।सौभाग्‍य से श्री अनूप शुक्‍ला के प्रयास से धूमिल की यह कविता नेट पर उपलब्‍ध है। अपनी टिप्‍पणी नहीं जोड़ते हुए मैं चाहता हूँ कि आप मोचीराम कविता पढ़ें और अगर धैर्य हो तो सांसदों को भी सुन लें।

जब किसी ने संसद में सुझाया कि धूमिल नयी कविता के महत्‍वपूर्ण कवि हैं और उनकी रचनाओं को समीक्षकों ने महत्‍वपूर्ण माना है तो हमारे एक सांसद श्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि जब उनकी सरकार आएगी तो ऐसे समीक्षक कहीं के नहीं रह जाऐंगे।सुनकर न गुस्‍सा आया न आश्‍चर्य हुआ,थोड़ी हँसी जरूर आयी- भाई कोशिश तो प्‍लेटो से लेकर हिटलर स्‍टालिन तक सबने की रविशंकर प्रसाद जी भी कोशिश करके देख लें!बहरहाल धूमिल की कुछ विवादित पंक्‍तियाँ यूं हैं-

और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे

अगर सही तर्क नहीं है

तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की

दलाली करके रोज़ी कमाने में

कोई फर्क नहीं है


वैसे इन पंक्‍तियों को पूरी कविता के संदर्भ में ही समझना ठीक है। पूरी कविता अनूप शुक्‍ला के ब्‍लाग पर मौजूद है।

Wednesday, April 19, 2006

नर्मदा घाटी के किसानों का बाजार (अ)भाव


बाजारवादी राजनीतिक-आर्थिक प्रणाली अपने विस्‍तार और फैलाव
के हर दौर में सफलता की एक कहानी रचती है। मजेदार तथ्‍य यह है कि इस एब्‍सर्ड नाटक का नायक
बार-बार बदल जाता है। कभी खुली अर्थव्‍यवस्‍था के
सफल उदाहरण के रूप में लैटिन अमेरिकी देशों को
सामने रखा जाता था। जब वह कहानी विफल अंत की
ओर बढ़ने लगी तब पूर्वी एशिया के देशों का उदाहरण सामने लाया गया। जब पूर्वी एशिया के
देशों के शेयर बाजार में अफरा-तफरी मची तब चीन
का उदाहरण दिया जाने लगा। हालाँकि चीन का उदाहरण
ठीक नहीं बैठता है । एक तो वह बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली
वाला देश नहीं है, दूसरी तरफ उसकी सफलता का श्रेय
खुली अर्थव्‍यवस्‍था के साथ-साथ नियोजित अर्थव्‍यवस्‍था को भी देनी पड़ेगी।


सफलता की इस कहानी में औपनिवेशिक ताकतों यानी यूरोपीय देशों की सफलता को शामिल नहीं
किया जाता है क्‍योंकि उनकी सफलता में औपनिवेशिक लूट की भूमिका स्‍पष्‍ट है।

मित्रों। खबर यह है कि इस धारावाहिक के वर्तमान एपिसोड का नायक भारत है।( इंडिया कहें तो बेहतर होगा।) भाई लोग फूले नहीं समा रहे हैं- खासकर विदेशों मे वास करनेवाले भारतीय भाई-बहनों का खुश होना वाजिब ही है।अहा! क्‍या दृश्‍य है! विश्‍व कार्पोरेट मीडिया का कैमरा पूरी सृष्‍टि- चर-अचर सब पर पैन करता हुआ भारत पर आ टिका है।ऐसे पावन समय में माननीय जार्ज बुश के भारत आगमन पर भारत के सामाचार माध्‍यमों में जो गहमा-गहमी देखी गयी वह स्‍वभाविक ही थी। कुछ संशयी लोग कुढ़ते हैं तो कुढ़ते रहें, भारत का कार्पोरेट मीडिया जो कर रहा है वह राष्‍ट्र-हित में ही कर रहा है।आखिर राष्‍ट्र हित के केन्‍द्र में कार्पोरेट का हित ही तो है ।

ऐसे महान समन्‍वयवादी समय में जब नर्मदा बचाव आन्‍दोलन वाले अपना दुखड़ा लेकर दिल्‍ली पहुँच जाते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो सुस्‍वादु भोजन ग्रहण करते समय अचानक दाँतों के बीच कोई कंकड़ आ फँसा हो। उनकी कहानी में कुछ ऐसा है कि समन्‍वय के तार बिखरने लगते हैं।

बाजारवादी व्‍यवस्‍था चाहती है कि आर्थिक लेन-देन के मामले में राज्‍य कम से कम दखल करे।राज्‍य की जिम्‍मेवारी है कि वह लोगों के संपत्ति के अधिकार की रक्षा करे , लेकिन जब बात विकास योजनाओं के नाम पर मध्‍य-प्रदेश के आदिवासी किसानों के जमीन दखल करने की आती है तब वही बाजारवादी व्‍यवस्‍था और उसके समर्थक समाचार माध्‍यम चाहते हैं कि राज्‍य पूरी सख्‍ती से इस मामले में दखल दे।

आखिर नर्मदा के किसानों का बाजार भाव क्‍या है ? सम्‍पत्ति के उनके अधिकार की रक्षा के लिए एडम स्‍मिथ के चेले- चपाटी मुँह क्‍यों नहीं खोलते ? जाहिर है कि सम्‍पत्ति का उनका अधिकार उनके लिए जीविकोपार्जन के अधिकार से अलग नहीं है। क्‍या हर मामले में सोवियत व्‍यवस्‍था की आलोचना करने वाले आलोचक इस मामले में सोवियत व्‍यवस्‍था का अनुगमन चाहते हैं ?

बात बहुत साफ हो चुकी है। मामला राज्‍य की भूमिका को कम या ज्‍यादा करने की नहीं है-मामला राज्‍य की भूमिका को इस तरह साधने की है कि कार्पोरेट का हित सध सके। मजदूरों की मजदूरी पर तो माँग और पूर्ति का बाजारू नियम लागू होगा, लेकिन किसानों को उनकी भूमि का बाजार भाव नहीं मिलेगा। माँग और पूर्ति का नियम लागू हो तो जमीन सर्वाधिक दुर्लभ वस्‍तु है। जमीन से बेदखल यही किसान कल शहरों में श्रम की आपूर्ति बढ़ा देंगे और वहाँ उनपर माँग और पूर्ति का नियम लागू होगा। प्रधानमंत्री बार-बार श्रम-कानूनों को लचीला बनाने पर जोर दे रहे हैं।

समन्‍वयवादी युग में संशयी होना सबसे बड़ा गुनाह है, लेकिन यहाँ तो सिर्फ तर्कसंगति और एकरूपता की बात की जा रही है । बाजार का नियम ही लागू हो तो सबपर हो और राज्‍य की अगर आर्थिक मामलों में कोई भूमिका है तो भारत की बहुसंख्‍यक जनता चाहती है कि राज्‍य उसके हितों की भी रक्षा करे । भारत की कार्पोरेट मीडिया में तो इन दिनों इस मामले में हद दर्जे का पाखंड दिख रहा है।


वैश्‍विक कार्पोरेट मीडिया का कैमरा ‘पैन’ करके भारत पर स्‍थिर ही नहीं हो गया है वह हमें ‘ज़ूम इन’ करके ‘क्‍लोज अप’ में भी लेता जा रहा है।इस ‘क्‍लोजअप’ में हमारी झूर्रियाँ भी दिख रही हैं और हमारा उबर- खाबरपन भी। न तो हमारे यहाँ का माओवादी आन्‍दोलन उस निगाह से छिपा है और न ही नर्मदा बचाव आन्‍दोलन।देखना यह है कि यह Foucaultian gaze हमें कितना असहज या अनुशासित करता है।

चित्र साभार- http://www.narmada.org/

कड़ियाँ:

नर्मदा घाटी की हकीकत और न्याय
- नंदिनी सुंदर

नर्मदा, न्याय और लोकतंत्र

Group of Ministers' (GoM) confidential report on R&R status in the valley

Friday, December 02, 2005

नवें दशक का उफान

आजकल जबकि भारत की मुख्‍यधारा के सामाचार-माध्‍यमों में मूर्तिपूजा (नये देवता का नाम नारायण मूर्ति है) का दौर चल रहा है और हमारे प्रधानमंत्री साफ तौर पर कह रहे हैं कि वैश्‍वीकरण की संभावनाओं को संदेह की दृष्‍टि से देखने वाले लोग अतीत में जी रहें हैं, पश्‍चिम के कई राजनीतिक और आर्थिक विश्‍लेषक उभरती हुई विश्‍व-व्‍यवस्‍था (राजनीतिक और आर्थिक)की कुछ अलग ही तस्‍वीर पेश कर रहे हैं।मजे की बात है कि इन तमाम राजनीतिक विश्‍लेषकों और अर्थशास्‍त्रियों को अतीत में जीने वाले अति उत्‍साही वामपंथी चिंतक कहकर खारिज नहीं किया जा सकता।

पिछले दिनों दो किताबें मेरे हाथ लगीं।पहली किताब जोसेफ स्‍टिग्‍लित्‍ज की है- The Roaring Nineties: A New History of the World's Most Prosperous Decade .
नोबेल पुरस्‍कार से सम्‍मानित अर्थशास्‍त्री स्‍टिग्‍लित्‍ज अभी हाल तक राष्‍ट्रपति क्‍लिंटन के आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरपर्सन थे।नवें दशक की आर्थिक नीतियों के निर्धारण में उनकी भागीदारी रही है।इसलिए नवें दशक के उफान के थमने के बाद उस दशक की समीक्षा उनके लिए आत्‍मनिरीक्षण जैसा है।स्‍टिग्‍लित्‍ज की यह किताब २००३ में प्रकाशित हुई।आज जबकि अमेरिकी अर्थव्‍यवस्‍था की डवाँडोल स्‍थिति महज अफवाह नहीं है और मुख्‍यधारा के पश्‍चिमी समाचार-पत्रों में भी यह मसला जोर पकड़ता जा रहा है (देखें संपादकीय,The New York Times,MONDAY, NOVEMBER 28, 2005),स्‍टिग्‍लित्‍ज की यह किताब खास तौर पर प्रासंगिक है।

आमतौर पर भ्रष्‍टाचार को सरकारी तंत्र से जोड़कर देखा जाता है और निजीकरण के पक्ष में कार्यकुशलता के साथ एक तर्क पारदर्शिता और accountibility का भी दिया जाता है।इस संदर्भ में इस पुस्‍तक के दो अध्‍याय खास तौर पर उल्‍लेखनीय हैं-The creative accounting और Enron. अगर भारतीय नौकरशाह सामान्‍य हित को ताक पर रखकर अपना उल्‍लू सीधा कर सकते हैं तो अमेरिकन सी इ ओ और उनके भारतीय सहयोगियों को भी कम करके नहीं आँकना चाहिए।

जो दूसरी किताब मेरे हाथ लगी वह Immanual Todd की है- After the Empire: The Breakdown of American Order .

जनसांख्‍यिकी और सामाजिक/सांस्‍कृतिक नृतत्‍वशास्‍त्र के इस विशेषज्ञ ने १९७५ में सोवियत यूनियन के बिखरने की भविष्‍यवाणी की थी।भविषयवाणियों में मेरा भरोसा नहीं है, लेकिन वर्तमान अंतर्राष्‍ट्रीय परिदृश्‍य का इस लेखक ने जैसा विश्‍लेषण किया है वह दूरदर्शितापूर्ण अवश्‍य है।
बहरहाल इस पुस्‍तक की विस्‍तार से चर्चा बाद में, फिलहाल आप सब को अच्‍छे सप्‍ताहांत की शुभकामनायें!

Thursday, September 29, 2005

उबर-खाबड़ दुनिया के सपाट विश्‍लेषक


क्‍या व्‍यवसाय और उधम की दुनिया अन्‍तर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर सपाट हो चुकी है?कम से कम न्‍युयार्क टाईम्‍स के विश्‍लेषक थामस फ्राइडमैन को अभी हाल तक ऐसा ही लगता रहा है। अगर दुनिया पुरी तरह चौरस नहीं भी हुई तो वैश्‍वीकरण के लेटेस्‍ट वर्जन-'ग्‍लोबलाईजेसन-३.०' के साथ दुनिया जल्‍दी ही सपाट होने वाली है।फ्राइडमैन का मानना है कि वैश्‍वीकरण को राजनैतिक समर्थन अब भारत और चीन जैसे देशों से मिलेगा,वैश्‍वीकरण का विरोध अब ग्‍लोबलाइजेशन-२.० से प्रभावित लैटिन अमेरिकी देश करेंगे।देखें- The World Is Flat: A Brief History of the Twenty-first Century

बुरा हो इस हैरिकेन कैटरीना और रीटा का जिसके कारण एक ओर जहाँ उनकी इस नई किताब का सेलिबरेशन एक खास सर्किल में चल ही रहा है,वहीं दुसरी ओर खुद फ्राइडमैन का स्‍वर बदल गया है।बुश प्रशासन से खासे दुखी फ्राइडमैन कहने लगे हैं कि हमाने बुश को समर्थन आतंकवाद के विरुध्‍द कड़ी कार्रवाई के लिए दिया लेकिन रिपब्‍लिनस ने इसका इस्‍तेमाल अपनी 'कंजरवेटिव' पालिसी को बेधड़क लागू करने में किया।हेराल्‍ड ट्रिब्‍यून मे प्रकाशित अपने हाल के एक लेख में फ्राइडमैन ने एक रिपब्‍लिकन पालिशीमेकर को उध्‍दृत किया है जिसका मानना है कि राज्‍य सरकार को आर्थिक मामले में उस हद तक छोटा कर देना चाहिए कि उसको बाथ टब में डुबाया जा सके।फ्राइडमैन व्‍यंग्‍य करते हुए लिखते हैं कि आखिर इस पालिशीमेकर की कोई जायदाद न्‍यु आरलियन्‍स में नहीं है।सो दुनिया की बात तो जाने हीं तो अच्‍छा संयुक्‍त राज्‍य अमेरिकाकी जमीन भी सपाट नहीं उबर-खाबड़ है। क्‍या फ्राइडमैन मानेंगे की ऐसी दुनिया के सपाट विश्‍लेषण की स्‍पष्‍ट सीमायें हैं?
साभार(चित्र)- http://www.nybooks.com/gallery/2557

Monday, July 11, 2005

The last house of this village

The last house of this village stands

as alone as if it were the last house in the world.


The road, that the little village cannot hold,

moves on slowly out into the night.


The little village is but a place of transition,

expectant and afraid, between two distances,

a passageway along houses instead of a bridge.


And those who leave the village may wander

a long time, and many may die, perhaps, along the way.



Rainer Maria Rilke





Premonition

I am like a flag surrounded by vast, open space.

I sense the coming winds and must live through them,

while all other things among themselves do not yet move:

The doors close quietly, and in the chimneys is silence;

The windows do not yet tremble, and the dust is still heavy and dark.


I already know the storms, and I'm as restless as the sea.

I roll out in waves and fall back upon myself,

and throw myself off into the air and am completely alone

in the immense storm.

A Poetry of Rainer Maria Rilke

Friday, July 01, 2005

महात्‍मा गाँधी न मजबूरी का नाम है, न हारे का हरिनाम।



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मुक्त जनपद

Sunday, June 26, 2005

संतो आई ज्ञान की आँधी

बचपन में किसी नीतिपरक दोहे या श्‍लोक के माध्‍यम से गुरूजी ने पढ़ाया था कि ज्ञान एक ऐसी सम्‍पत्ति है जिसे चोर नहीं चुरा सकता,लुटेरा नहीं लुट सकता और यह एक ऐसी सम्‍पत्ति है जो बाँटने से घटती नहीं बढ़ती है।

यूनिवर्सिटी और इन्‍डसस्‍ट्री के 'आर एण्‍ड डी' के सहयोग से चलने वाले हजारों प्रोजेक्‍ट में कार्यरत हमारे भाई-बंधु उपरोक्‍त श्‍लोक की सार्थकता के बारे में बेहतर बता सकते हैं।

बहरहाल हमारे समय के संतजन कहने लगे हैं कि उत्तर औधोगिक समाज में मूल्‍य उत्‍पादन ज्ञान के क्षेत्र में ही हो रहा है चाहे वह मामला साफ्‍टवेयर के निर्माण का हो या बायोटेक्‍नालाजि के जरिये किसी नये जिनोम के निर्माण का। इसलिए बौध्‍दिक संपदा कानून और पेटेंट की चिन्‍ता में नये सेठजी दुबले हुए जा रहे हैं बाकी तो उनके उत्‍पादन स्‍थल यानी कार्यालय में जो होता है उसे चोर उठा कर ले भी जाय तो खास परवाह नहीं।

आर्थिक मूल्‍य निर्धारण का मामला हमेशा विवादास्‍पद रहा है।लाल रंग वालों ने कहा कि आर्थिक-मूल्‍य सामाजिक श्रम से निर्मित होता है।मसलन आप पेड़ काटकर जब मेज बनाते हैं तो मेज हमारे लिए मूल्‍यवान हो जाता है।

वर्षों बाद जब तीसरी दुनिया, विशेषकर अफ्रीका के जंगल भी साफ होते गये तब हरे रंग वालों ने सही जगह टोकते हुए इस दुनिया को चेताया कि जिस पेड़ को हम/आप मूल्‍यहीन या कम मूल्‍य का मानते हैं उसे प्रकृति सैकड़ों-हजारों वर्षों में रचती है-

" An attitude to life which seeks fulfillment in the single-minded pursuit of wealth / in short, materialism / does not fit into this world, because it contains within itself no limiting principle, while the environment in which it is placed is strictly limited."

E. F. Schumacher

लेकिन जब बाजार मूल्‍य आँकने बैठता है तो जो चीज प्रकृति से जितनी दूर है उसका मूल्‍य उतना ही अधिक लगाया जाता है।जैसे पेड़ सबसे कम मूल्‍यवान,कृषि- उत्‍पाद उससे कुछ अधिक मुल्‍यवान , निम्‍न तकनीकि आधारित औधोगिक उत्‍पाद
उसके अधिक मूल्‍यवान....इसी क्रम में सट्‍टेबाजी करने वाली सर्विस एजेंसी और
ब्राण्‍ड मेकिंग करने वाली ऐजेंसी अधिक मूल्‍य उत्‍पादित करती हैं।

मसलन जरा नवभारत टाइम्‍स के एक अग्रलेख में एक लेखक द्वारा की गयी इस सटीक टिप्‍पणी पर गौर करें-

"1980 के दशक में गरीब देशों से किए जाने वाले एक्सपोर्ट, जैसे- कॉफी, कोको आदि के दाम इंटरनैशनल मार्केट में गिर गए और इन देशों की आमदनी काफी कम हो गई। गौरतलब यह है कि अपने उत्पादनों का भाव तय करने में उत्पादक देशों की कोई भूमिका नहीं होती, भाव तय करते थे इम्पोर्ट करने वाले अमीर देश। मिसाल के लिए भारत के गरीब किसानों के कृषि उत्पादन का मूल्य व्यापारी तय करते रहे, जब तक कि सरकार ने हस्तक्षेप नहीं किया। विदेशी बाजार में ऐसा कोई हस्तक्षेप नहीं है और सब कुछ खरीदार की मजीर् पर चलता है। कॉफी और कोको की खेती गरीब किसान करते हैं, जिनके लिए दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल होता है। लेकिन यूरोप के बाजार में ये उत्पादन सस्ती दर पर बेचे जाते हैं- और आप जानते ही हैं कोको से बनी चॉकलेट कितनी महंगी होती है। कहानी वही पुरानी है। गरीब पैदावार करे और सस्ती दर पर बेचने को मजबूर हो, जबकि उद्योगपति ऊंची दर पर मुनाफा कमाए। "


मित्रों ! खबर यह है कि दुनिया के ८ सबसे अमीर देशों को अफ्रीका के कई देशों का कर्ज माफ कर देना पड़ा है। पता नहीं इसे जी-८ विरोधी लाबिंग की सफलता मानें या अमीर देशों कि उदारता- या वर्तमान विश्‍व व्‍यवस्‍था को किसी तरह बचाये रखने की उनकी चिन्‍ता से प्रेरित कार्रवाई।

बहरहाल इन राष्‍ट्रों की दुर्दशा की कुछ तो जिम्‍मेवारी अमीर औधोगिक देशों को लेनी ही चाहिए।

"अशांति के अलावा ऐसा एक कारण था, प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से नष्ट होना। मसलन आइवरी कोस्ट, मलावी, मोरिटानिया, नाइजर, नाइजीरिया और रवांडा जैसे देशों में जंगलों का कटना गरीबी का कारण बना। इससे एक तरफ आपदाएं आईं और दूसरी तरफ जीवन के संसाधन दुर्लभ होते गए।"
पूरा रिपोर्ट पढ़ें।

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