संतो आई ज्ञान की आँधी
बचपन में किसी नीतिपरक दोहे या श्लोक के माध्यम से गुरूजी ने पढ़ाया था कि ज्ञान एक ऐसी सम्पत्ति है जिसे चोर नहीं चुरा सकता,लुटेरा नहीं लुट सकता और यह एक ऐसी सम्पत्ति है जो बाँटने से घटती नहीं बढ़ती है।
यूनिवर्सिटी और इन्डसस्ट्री के 'आर एण्ड डी' के सहयोग से चलने वाले हजारों प्रोजेक्ट में कार्यरत हमारे भाई-बंधु उपरोक्त श्लोक की सार्थकता के बारे में बेहतर बता सकते हैं।
बहरहाल हमारे समय के संतजन कहने लगे हैं कि उत्तर औधोगिक समाज में मूल्य उत्पादन ज्ञान के क्षेत्र में ही हो रहा है चाहे वह मामला साफ्टवेयर के निर्माण का हो या बायोटेक्नालाजि के जरिये किसी नये जिनोम के निर्माण का। इसलिए बौध्दिक संपदा कानून और पेटेंट की चिन्ता में नये सेठजी दुबले हुए जा रहे हैं बाकी तो उनके उत्पादन स्थल यानी कार्यालय में जो होता है उसे चोर उठा कर ले भी जाय तो खास परवाह नहीं।
आर्थिक मूल्य निर्धारण का मामला हमेशा विवादास्पद रहा है।लाल रंग वालों ने कहा कि आर्थिक-मूल्य सामाजिक श्रम से निर्मित होता है।मसलन आप पेड़ काटकर जब मेज बनाते हैं तो मेज हमारे लिए मूल्यवान हो जाता है।
वर्षों बाद जब तीसरी दुनिया, विशेषकर अफ्रीका के जंगल भी साफ होते गये तब हरे रंग वालों ने सही जगह टोकते हुए इस दुनिया को चेताया कि जिस पेड़ को हम/आप मूल्यहीन या कम मूल्य का मानते हैं उसे प्रकृति सैकड़ों-हजारों वर्षों में रचती है-
" An attitude to life which seeks fulfillment in the single-minded pursuit of wealth / in short, materialism / does not fit into this world, because it contains within itself no limiting principle, while the environment in which it is placed is strictly limited."
E. F. Schumacher
लेकिन जब बाजार मूल्य आँकने बैठता है तो जो चीज प्रकृति से जितनी दूर है उसका मूल्य उतना ही अधिक लगाया जाता है।जैसे पेड़ सबसे कम मूल्यवान,कृषि- उत्पाद उससे कुछ अधिक मुल्यवान , निम्न तकनीकि आधारित औधोगिक उत्पाद
उसके अधिक मूल्यवान....इसी क्रम में सट्टेबाजी करने वाली सर्विस एजेंसी और
ब्राण्ड मेकिंग करने वाली ऐजेंसी अधिक मूल्य उत्पादित करती हैं।
मसलन जरा नवभारत टाइम्स के एक अग्रलेख में एक लेखक द्वारा की गयी इस सटीक टिप्पणी पर गौर करें-
"1980 के दशक में गरीब देशों से किए जाने वाले एक्सपोर्ट, जैसे- कॉफी, कोको आदि के दाम इंटरनैशनल मार्केट में गिर गए और इन देशों की आमदनी काफी कम हो गई। गौरतलब यह है कि अपने उत्पादनों का भाव तय करने में उत्पादक देशों की कोई भूमिका नहीं होती, भाव तय करते थे इम्पोर्ट करने वाले अमीर देश। मिसाल के लिए भारत के गरीब किसानों के कृषि उत्पादन का मूल्य व्यापारी तय करते रहे, जब तक कि सरकार ने हस्तक्षेप नहीं किया। विदेशी बाजार में ऐसा कोई हस्तक्षेप नहीं है और सब कुछ खरीदार की मजीर् पर चलता है। कॉफी और कोको की खेती गरीब किसान करते हैं, जिनके लिए दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल होता है। लेकिन यूरोप के बाजार में ये उत्पादन सस्ती दर पर बेचे जाते हैं- और आप जानते ही हैं कोको से बनी चॉकलेट कितनी महंगी होती है। कहानी वही पुरानी है। गरीब पैदावार करे और सस्ती दर पर बेचने को मजबूर हो, जबकि उद्योगपति ऊंची दर पर मुनाफा कमाए। "
मित्रों ! खबर यह है कि दुनिया के ८ सबसे अमीर देशों को अफ्रीका के कई देशों का कर्ज माफ कर देना पड़ा है। पता नहीं इसे जी-८ विरोधी लाबिंग की सफलता मानें या अमीर देशों कि उदारता- या वर्तमान विश्व व्यवस्था को किसी तरह बचाये रखने की उनकी चिन्ता से प्रेरित कार्रवाई।
बहरहाल इन राष्ट्रों की दुर्दशा की कुछ तो जिम्मेवारी अमीर औधोगिक देशों को लेनी ही चाहिए।
"अशांति के अलावा ऐसा एक कारण था, प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से नष्ट होना। मसलन आइवरी कोस्ट, मलावी, मोरिटानिया, नाइजर, नाइजीरिया और रवांडा जैसे देशों में जंगलों का कटना गरीबी का कारण बना। इससे एक तरफ आपदाएं आईं और दूसरी तरफ जीवन के संसाधन दुर्लभ होते गए।" पूरा रिपोर्ट पढ़ें।
1 Comments:
"Give me one thing in this world that is not 'property'!" I was challenged by a very renowned professor of political science in a recent job interview. This came as a resopnse to my contention that the issue of radical redistribution of resources is something that can not be understood by notions such as civil society. That is so because they presupposes individual rights on the basis of which existing distribution of resources are sustained. I added that so long as resources are percieved as 'property', individuals will have right over them and engage in activities to protect it in the realm of civil society. The professor observed that even Mount Evrest is a 'property'.
I could not tell him that you are basically proving my point sir; that most of the genre which civil society belong to, presupposes 'property' and individual's claim over it and then proceed to search for an egalitarian social order.
praveen
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