नर्मदा घाटी के किसानों का बाजार (अ)भाव
बाजारवादी राजनीतिक-आर्थिक प्रणाली अपने विस्तार और फैलाव
के हर दौर में सफलता की एक कहानी रचती है। मजेदार तथ्य यह है कि इस एब्सर्ड नाटक का नायक
बार-बार बदल जाता है। कभी खुली अर्थव्यवस्था के
सफल उदाहरण के रूप में लैटिन अमेरिकी देशों को
सामने रखा जाता था। जब वह कहानी विफल अंत की
ओर बढ़ने लगी तब पूर्वी एशिया के देशों का उदाहरण सामने लाया गया। जब पूर्वी एशिया के
देशों के शेयर बाजार में अफरा-तफरी मची तब चीन
का उदाहरण दिया जाने लगा। हालाँकि चीन का उदाहरण
ठीक नहीं बैठता है । एक तो वह बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली
वाला देश नहीं है, दूसरी तरफ उसकी सफलता का श्रेय
खुली अर्थव्यवस्था के साथ-साथ नियोजित अर्थव्यवस्था को भी देनी पड़ेगी।
सफलता की इस कहानी में औपनिवेशिक ताकतों यानी यूरोपीय देशों की सफलता को शामिल नहीं
किया जाता है क्योंकि उनकी सफलता में औपनिवेशिक लूट की भूमिका स्पष्ट है।
मित्रों। खबर यह है कि इस धारावाहिक के वर्तमान एपिसोड का नायक भारत है।( इंडिया कहें तो बेहतर होगा।) भाई लोग फूले नहीं समा रहे हैं- खासकर विदेशों मे वास करनेवाले भारतीय भाई-बहनों का खुश होना वाजिब ही है।अहा! क्या दृश्य है! विश्व कार्पोरेट मीडिया का कैमरा पूरी सृष्टि- चर-अचर सब पर पैन करता हुआ भारत पर आ टिका है।ऐसे पावन समय में माननीय जार्ज बुश के भारत आगमन पर भारत के सामाचार माध्यमों में जो गहमा-गहमी देखी गयी वह स्वभाविक ही थी। कुछ संशयी लोग कुढ़ते हैं तो कुढ़ते रहें, भारत का कार्पोरेट मीडिया जो कर रहा है वह राष्ट्र-हित में ही कर रहा है।आखिर राष्ट्र हित के केन्द्र में कार्पोरेट का हित ही तो है ।
ऐसे महान समन्वयवादी समय में जब नर्मदा बचाव आन्दोलन वाले अपना दुखड़ा लेकर दिल्ली पहुँच जाते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो सुस्वादु भोजन ग्रहण करते समय अचानक दाँतों के बीच कोई कंकड़ आ फँसा हो। उनकी कहानी में कुछ ऐसा है कि समन्वय के तार बिखरने लगते हैं।
बाजारवादी व्यवस्था चाहती है कि आर्थिक लेन-देन के मामले में राज्य कम से कम दखल करे।राज्य की जिम्मेवारी है कि वह लोगों के संपत्ति के अधिकार की रक्षा करे , लेकिन जब बात विकास योजनाओं के नाम पर मध्य-प्रदेश के आदिवासी किसानों के जमीन दखल करने की आती है तब वही बाजारवादी व्यवस्था और उसके समर्थक समाचार माध्यम चाहते हैं कि राज्य पूरी सख्ती से इस मामले में दखल दे।
आखिर नर्मदा के किसानों का बाजार भाव क्या है ? सम्पत्ति के उनके अधिकार की रक्षा के लिए एडम स्मिथ के चेले- चपाटी मुँह क्यों नहीं खोलते ? जाहिर है कि सम्पत्ति का उनका अधिकार उनके लिए जीविकोपार्जन के अधिकार से अलग नहीं है। क्या हर मामले में सोवियत व्यवस्था की आलोचना करने वाले आलोचक इस मामले में सोवियत व्यवस्था का अनुगमन चाहते हैं ?
बात बहुत साफ हो चुकी है। मामला राज्य की भूमिका को कम या ज्यादा करने की नहीं है-मामला राज्य की भूमिका को इस तरह साधने की है कि कार्पोरेट का हित सध सके। मजदूरों की मजदूरी पर तो माँग और पूर्ति का बाजारू नियम लागू होगा, लेकिन किसानों को उनकी भूमि का बाजार भाव नहीं मिलेगा। माँग और पूर्ति का नियम लागू हो तो जमीन सर्वाधिक दुर्लभ वस्तु है। जमीन से बेदखल यही किसान कल शहरों में श्रम की आपूर्ति बढ़ा देंगे और वहाँ उनपर माँग और पूर्ति का नियम लागू होगा। प्रधानमंत्री बार-बार श्रम-कानूनों को लचीला बनाने पर जोर दे रहे हैं।
समन्वयवादी युग में संशयी होना सबसे बड़ा गुनाह है, लेकिन यहाँ तो सिर्फ तर्कसंगति और एकरूपता की बात की जा रही है । बाजार का नियम ही लागू हो तो सबपर हो और राज्य की अगर आर्थिक मामलों में कोई भूमिका है तो भारत की बहुसंख्यक जनता चाहती है कि राज्य उसके हितों की भी रक्षा करे । भारत की कार्पोरेट मीडिया में तो इन दिनों इस मामले में हद दर्जे का पाखंड दिख रहा है।
वैश्विक कार्पोरेट मीडिया का कैमरा ‘पैन’ करके भारत पर स्थिर ही नहीं हो गया है वह हमें ‘ज़ूम इन’ करके ‘क्लोज अप’ में भी लेता जा रहा है।इस ‘क्लोजअप’ में हमारी झूर्रियाँ भी दिख रही हैं और हमारा उबर- खाबरपन भी। न तो हमारे यहाँ का माओवादी आन्दोलन उस निगाह से छिपा है और न ही नर्मदा बचाव आन्दोलन।देखना यह है कि यह Foucaultian gaze हमें कितना असहज या अनुशासित करता है।
चित्र साभार- http://www.narmada.org/
कड़ियाँ:
नर्मदा घाटी की हकीकत और न्याय
- नंदिनी सुंदर
नर्मदा, न्याय और लोकतंत्र
Group of Ministers' (GoM) confidential report on R&R status in the valley
4 Comments:
नर्मदा बांध के बीच में बाज़ारवादी ताकतें कहाँ से आ गई? ये कोई कोर्पोरेट सौदा नहीं है, यह विशुद्ध रूप से लोगों के जीवन मरण से जुडा मसला है. विस्थापित लोगों को उनका हक तो मिलना ही चाहिए, पर गुजरात के लोग भी प्यासे नहीं मारे जा सकते?
मेधाजी जो खेल खेल रही हैं उसकी भी जाँच होत्नी चाहिए
आपने अपने आलेख में जिस पर्यटन स्थल का जिक्र किया है वैसे पर्यटन स्थलों को विकसित
करना नर्मदा विकास योजना के मुख्य लक्ष्यों में शामिल है।इसके अतिरिक्त इन्डस्ट्री और बड़े
गन्ना किसानों को सस्ते दर पर पानी पहुँचाना प्राथमिकता की सूची में ऊपर है। कच्छ के
निवासियों के प्यास का मुद्दा तो बाद मे परियोजना को नैतिक वैधता देने के लिए बाद में जोर
दिया गया है। कच्छ निवासियों की प्यास तो तब बुझेगी जब बाकी बड़ी मछलियों को भरपूर पानी
मिल जाय या हजार दो हजार और गावों को और विस्थापित करके बाँध की ऊँचाई को हिमालय
पहाड़ की तरह कर दिया जाय। बहरहाल पिछले कई दशकों से गुजरात की सरकार जल संसाधन
विकास के बजट का अधिकाँश हिस्सा इस परियोजना मे लगा रही है और सौराष्ट्र और कच्छ के
लोग नर्मदा के पानी का इंतजार ही कर रहे हैं। अगर मामला सिर्फ प्यास का है तो कई वैक्लपिक
तरीके (http://www.narmada.org/ALTERNATIVES/ )ढूढ़े जा सकते हैं लेकिन मामला मसज प्यास का है ही नहीं।
आज जब नर्मदा के किसान जब विस्थापित हो रहे हैं तो हम भले कह लें कि यह कार्पोरेट सौदा
नहीं है लेकिन कल जब यही उजड़े हुए लोग गुजरात के उन्हीं इन्डस्ट्रियों में नौकरी ढुँढने जाएंगे
तब उनकी मजदूरी पर माँग और पूर्ति का नियम लागू होगा।उस समय उत्पादकता और
प्रतियोगिता के नाम पर नयूनतम सामाजिक सुरक्षा की माँग करना भी गुनाह समझा जाएगा।
और मामला महज नर्मदा का ही नहीं है। हर तरह की सब्सिडी पर शोर मचाने वाले लोग शायद
इस तथ्य को नजरअंदाज कर देना चाहते हैं कि राज्य की ओर से असली सब्सिडी किसे मिल रही
है ।
खूबसूरत ब्लॉग सटीक विचार
पंकज के विचार में कई मसलों की अनदेखी साफ नजर आती है। प्यास की इस ढाल के खेल को समझना बेहद जरूरी है।
मनोज के विचार से सहमति जताते हुये अनुरोध करूंगा कि वीरेंद्र जैन का उपन्यास 'डूब'
पढ़ें। विस्थापितों का दर्द शायद समझ में आये। जिस महिला में वंचितों के लिये अपनी जिंदगी
का बड़ा हिस्सा लगा दिया ,उसके कामों के पीछे राजनीति ,जांच की बात कहने के पहले सोचना चाहिये।
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