Sunday, June 26, 2005

संतो आई ज्ञान की आँधी

बचपन में किसी नीतिपरक दोहे या श्‍लोक के माध्‍यम से गुरूजी ने पढ़ाया था कि ज्ञान एक ऐसी सम्‍पत्ति है जिसे चोर नहीं चुरा सकता,लुटेरा नहीं लुट सकता और यह एक ऐसी सम्‍पत्ति है जो बाँटने से घटती नहीं बढ़ती है।

यूनिवर्सिटी और इन्‍डसस्‍ट्री के 'आर एण्‍ड डी' के सहयोग से चलने वाले हजारों प्रोजेक्‍ट में कार्यरत हमारे भाई-बंधु उपरोक्‍त श्‍लोक की सार्थकता के बारे में बेहतर बता सकते हैं।

बहरहाल हमारे समय के संतजन कहने लगे हैं कि उत्तर औधोगिक समाज में मूल्‍य उत्‍पादन ज्ञान के क्षेत्र में ही हो रहा है चाहे वह मामला साफ्‍टवेयर के निर्माण का हो या बायोटेक्‍नालाजि के जरिये किसी नये जिनोम के निर्माण का। इसलिए बौध्‍दिक संपदा कानून और पेटेंट की चिन्‍ता में नये सेठजी दुबले हुए जा रहे हैं बाकी तो उनके उत्‍पादन स्‍थल यानी कार्यालय में जो होता है उसे चोर उठा कर ले भी जाय तो खास परवाह नहीं।

आर्थिक मूल्‍य निर्धारण का मामला हमेशा विवादास्‍पद रहा है।लाल रंग वालों ने कहा कि आर्थिक-मूल्‍य सामाजिक श्रम से निर्मित होता है।मसलन आप पेड़ काटकर जब मेज बनाते हैं तो मेज हमारे लिए मूल्‍यवान हो जाता है।

वर्षों बाद जब तीसरी दुनिया, विशेषकर अफ्रीका के जंगल भी साफ होते गये तब हरे रंग वालों ने सही जगह टोकते हुए इस दुनिया को चेताया कि जिस पेड़ को हम/आप मूल्‍यहीन या कम मूल्‍य का मानते हैं उसे प्रकृति सैकड़ों-हजारों वर्षों में रचती है-

" An attitude to life which seeks fulfillment in the single-minded pursuit of wealth / in short, materialism / does not fit into this world, because it contains within itself no limiting principle, while the environment in which it is placed is strictly limited."

E. F. Schumacher

लेकिन जब बाजार मूल्‍य आँकने बैठता है तो जो चीज प्रकृति से जितनी दूर है उसका मूल्‍य उतना ही अधिक लगाया जाता है।जैसे पेड़ सबसे कम मूल्‍यवान,कृषि- उत्‍पाद उससे कुछ अधिक मुल्‍यवान , निम्‍न तकनीकि आधारित औधोगिक उत्‍पाद
उसके अधिक मूल्‍यवान....इसी क्रम में सट्‍टेबाजी करने वाली सर्विस एजेंसी और
ब्राण्‍ड मेकिंग करने वाली ऐजेंसी अधिक मूल्‍य उत्‍पादित करती हैं।

मसलन जरा नवभारत टाइम्‍स के एक अग्रलेख में एक लेखक द्वारा की गयी इस सटीक टिप्‍पणी पर गौर करें-

"1980 के दशक में गरीब देशों से किए जाने वाले एक्सपोर्ट, जैसे- कॉफी, कोको आदि के दाम इंटरनैशनल मार्केट में गिर गए और इन देशों की आमदनी काफी कम हो गई। गौरतलब यह है कि अपने उत्पादनों का भाव तय करने में उत्पादक देशों की कोई भूमिका नहीं होती, भाव तय करते थे इम्पोर्ट करने वाले अमीर देश। मिसाल के लिए भारत के गरीब किसानों के कृषि उत्पादन का मूल्य व्यापारी तय करते रहे, जब तक कि सरकार ने हस्तक्षेप नहीं किया। विदेशी बाजार में ऐसा कोई हस्तक्षेप नहीं है और सब कुछ खरीदार की मजीर् पर चलता है। कॉफी और कोको की खेती गरीब किसान करते हैं, जिनके लिए दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल होता है। लेकिन यूरोप के बाजार में ये उत्पादन सस्ती दर पर बेचे जाते हैं- और आप जानते ही हैं कोको से बनी चॉकलेट कितनी महंगी होती है। कहानी वही पुरानी है। गरीब पैदावार करे और सस्ती दर पर बेचने को मजबूर हो, जबकि उद्योगपति ऊंची दर पर मुनाफा कमाए। "


मित्रों ! खबर यह है कि दुनिया के ८ सबसे अमीर देशों को अफ्रीका के कई देशों का कर्ज माफ कर देना पड़ा है। पता नहीं इसे जी-८ विरोधी लाबिंग की सफलता मानें या अमीर देशों कि उदारता- या वर्तमान विश्‍व व्‍यवस्‍था को किसी तरह बचाये रखने की उनकी चिन्‍ता से प्रेरित कार्रवाई।

बहरहाल इन राष्‍ट्रों की दुर्दशा की कुछ तो जिम्‍मेवारी अमीर औधोगिक देशों को लेनी ही चाहिए।

"अशांति के अलावा ऐसा एक कारण था, प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से नष्ट होना। मसलन आइवरी कोस्ट, मलावी, मोरिटानिया, नाइजर, नाइजीरिया और रवांडा जैसे देशों में जंगलों का कटना गरीबी का कारण बना। इससे एक तरफ आपदाएं आईं और दूसरी तरफ जीवन के संसाधन दुर्लभ होते गए।"
पूरा रिपोर्ट पढ़ें।

Wednesday, June 22, 2005

कितने टोबा टेक सिंह


Posted by Hello

भारत-विभाजन की कहानी,अंधेर नगरी के चौपट राजा की जु़बानी

भारत-विभाजन का मसला इसके पहले की अंधेर-नगरी के चौपट राजा के कोर्ट में चला जाए(आप में से कुछ कहेंगे की चला ही गया है) बेहतर हो कि हम इतिहासकारों की बात सुनें।




जंगल राज

बिहार हमारे प्‍यारे गुलिश्‍तां में गलती से उग आया एकमात्र वनैला पेड़ नहीं है।

Saturday, June 18, 2005

मियाँ ग़ालिब ने फरमाया-

क्यूँ न फ़िरदौस में दोज़ख़ को मिला लें या रब

सैर के वास्ते थोड़ी सी फ़ज़ा और सही

अब इसे रचनात्‍मक जिद्‌द या गुस्‍ताख़ी कह लें, इसके आगे राष्‍ट्रवादी पहचान की 'शुध्‍दता' के दावे को थोड़ी देर के लिए
नज़रअन्‍दाज़ कर देना ही ठीक है।

'हिन्‍दी उर्दु के मुकदमे' में ज़िरह करने वाले तमाम वकील शायद अब थक चुके होंगे।बेहतर हो कि बदले हुए माहौल में हम इस मसले पर
एक बार फिर से गौ़र फ़रमायें।



A CASE FOR URDU EDUCATION IN INDIA

Apoorvanand,Delhi

The question of Urdu as a language in education has been a subject of fierce debates and arguments. Ironically it seems to be dictated by political considerations and controlled by people who knows and cares little about languages and education. A popular perception that Urdu belongs to a particular religious community has been allowed to gain ground. The fact however is it is a language with rich history spreading over more than thousand of years. Unfortunately sometimes Urdu is no longer perceived as an independent language. Since Urdu and Hindi have grown in close proximity, they are often perceived as two different styles of one language. While accepting the evolution of Urdu and Hindi as a unique case of one language split into two and that at a certain level of abstraction there is little difference between the two, one should not forget that this perception has led to an understanding that there is no need to clamour for an independent space for Urdu in Persho Arabic script and it can very well survive in the shell of Hindi written in Devnagari script. As a result of this it has been made to suffer the apathy and neglect of policy makers in general and education planners in particular.

Urdu shares its territory with Hindi and is, in one form or other, in use in the areas of Kashmir ,Punjab, Delhi, Madhya Pradesh, Haryana, Uttar Pradesh, Bihar, Jharkhand and in the geographical ares of old Hyderabad and Marathwada(i.e, parts of Tamil Nadu, Karnataka, Andhra Pradesh).Murshidabad in Bengal was once a centre of Urdu but now in Bengal it has remained largely a language of the migrnts from Bihar who more or less live on a permanent basis there.There is a thriving newspaper industry even in a state like maharshtra and there is demand for Urdu books and journals in Karnataka.

If we take into account the fact that even after suffering a deliberate official neglect for about half a century, Urdu has managed to survive in the above mentioned areas making use of the meager resources available to it in the form of community support and little support it garnered from the governments proves that as a language it continues tobe a living organism which has its own cultural and societal moorings. There is no reason therefore to treat it as a language in disuse and natural decline.

Popularity of Hindustani cinema and Ghazal gayaki ,etc have kindled a love for Urdu even among those whowould for other reasons would not call Urdu "their"language. The fact there is a growing demand for Urdu literature in Devnagari only proves that there are sufficient societal resources and levels of acceptance which need to be tapped for a healthy growth of Urdu.

Another argument which is extra linguistic in nature but socially relevant is that there is renewed warmth in the relations of the peoples of India and Pakistan and Urdu could prove to be a very strong bridge to help them come together and gain a better understanding of the commonness of the ground they share. That peace and friendship between the two nations is vital for their healthy growth is an argument which does not need further elucidation.

One needs to take note that neglect by the state owned educational structures has driven Urdu to the Madarsas , especially relevant in the case of a large population of poor Muslim masses to whom they offerfree education. They are weak centers of education where Urdu is taught in complete isolation from other social and cultural communities, thereby depriving the Urdu learners the richness of inter community and cultural interactions that lead to openness in any language use. It only further weakens Urdu as a language.

The irony of Urdu is that while it is treated with respect and dignity as a cultural entity, there is little or no empirical knowledge transaction or production in it. Poor availability of Urdu textbooks in sciences and social sciences combined with non appointment of qualified teachers in Urdu medium schools who could deal ably with different subjects forces the students, otherwise at home in the Urdu medium to go for Hindi or English medium schools. It would therefore essential to create the wherewithal necessary for Urdu to continue as a language of education in the 21st century.



Sunday, June 12, 2005

अकसर सुनने को मिलता है कि अगर भारत जैसे देश के सकल घरेलु उत्‍पादमें अगले कुछ वर्षों तक वृध्‍दि होती रही तो सबको रोजगार का अवसर मिल जाएगा और भारत से गरीबी मिट जाएगी।लेकिन सकल घरेलु उत्‍पाद में वृध्‍दि होगी कैसे ? उदारवादी अर्थशास्‍त्री कहेंगे कि श्रम को कम उत्‍पादकता वाले क्षेत्र से अधिक उत्‍पादकता वाले क्षेत्र में निरन्‍तर स्‍थानान्‍तरित करते रहने से सकल घरेलु उत्‍पाद में वृध्‍दि होती हैऔर हमारा श्रम कानून जिसमें संगठित क्षेत्र के मजदूरों को किसी सीमा तक सामाजिक सुरक्षा दी गयी है इस लचीलेपन में बाधक है।उदाहरण आम तौर पर अमेरिका का दिया जाता है-

But US living standards rise only because workers are constantly forced out of lower-productivity jobs into higher-productivity ones. Every year, the US destroys 32 million jobs and creates 32.5 million jobs. The net result is a richer, more productive USA.

भारत के विशिष्‍ट संदर्भ में श्रम को अधिक उत्‍पादक बनाने के मार्ग में दूसरी महत्‍वपूर्ण बाधाएं भी हैं। क्‍या सरकार प्रत्‍येक दलित-आदिवासी बच्‍चे के माँ-बाप को अगले ८/१० साल तक ८/१० रुपये रोज के हिसाब से दे पाएगी ताकि अगले ६८ साल तक वे १०० प्रतिदिन के हिसाब से कमा पाएं और सकल घरेलुउत्‍पाद में सचमुच वृध्‍दि हो सके।८/१० रुपये रोज इसलिए क्‍योंकि माँ-बाप स्‍कूल जाने की उम्र में ही छोटे-मोटे काम में लगा देते हैं और इस तबके में स्‍कूल छोड़ने वाले बच्‍चों का प्रतिशत सबसे अधिक है।

क्‍या सरकार भविष्‍य के लिए यह मामूली निवेश कर पाएगी? क्‍या भारत का नागरिक-समाज झुठे प्रवचनों और रूढ़िबध्‍द सतही आर्थिक विश्‍वासों से उबर पाएगा ?


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रुपेश, लंदन

भारत के संदर्भ मे संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका का उदाहरण देना किसी घपले से कम नहीं है। संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका अपने कुल GDP $10980.00 बिलीयन के साथ इस मामले मे विश्‍व मे सर्वप्रथम है और भारत अपने कुल GDP $3022.00 बिलीयन के साथ विश्‍व मे चौथे स्‍थान पर है लकिन संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका अपने प्रति व्‍यक्‍ति GDP $37800.00 के साथ इस मामले मे विश्‍व मे दुसरे स्‍थान पर है जबकि भारत अपने प्रति व्‍यक्‍ति GDP $2900.00 के साथ इस मामले मे विश्‍व मे एक सौ बावनमें स्‍थान पर है। हम तो यह कहेगे कि यह दृश्‍य आजादी के बाद भी भारत मे चल रहे शोषण की ओर इंगित करता है। प्रति व्‍यक्‍ति GDP का कुल GDP के साथ इस तरह असंतुलित होना शोषण नहीं तो और क्‍या है, भारत के संदर्भ मे संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका का उदाहरण देना घपला नहीं तो और क्‍या है?

Saturday, June 11, 2005

The pedagogical strategies suggested in the proposed curriculum frame seek to end the tyranny of a single, official textbook in all subjects.

Apoorvanand, Delhi.

The act of vandalism by the ABVP, the student wing of the R.S.S. at the Vigyan Bhawan, where the CABE was meeting to discuss the revised draft of the National Curriculum Frame is highly condemnable and should be deplored by all who believe in democratic means of discussion and negotiation .That they not only broke the furniture of the Vigyan Bhawan but took down the valuable paintings and art works done by some very eminent artists and destroyed them shows that intention of the ABVP members was to disrupt the meeting which had not even started when they entered the meeting premises. In the melee Shri Habib Tanvir who was going to attend the meeting fell in a pit and broke his leg and had to undergone a major surgery. The injury caused to him is a matter of serious concern and the ABVP is squarely responsible for this.

The act of arson by ABVP was part of a larger design is evident from the statements of Sh. M.M. Joshi two days before the CABE meeting that the BJP members of the CABE would oppose the revised curriculum draft. Their refusal to participate in any discussion is again a proof of their distrust in democratic discussion and argument. When in power, they tried to stifle the dissenting voices by using official machinery, when out of power they take recourse to muscle power to stop any democratic discourse. It is high time all the democratic forces raise their voice against the violence of these forces.
What is most baffling is that these vandals were allowed to enter a high security area like the Vigayn Bhawan and indulge in arson where 3 central ministers and many state ministers were present along with many prominent civil society members.

The allegation of the BJP and the RSS outfits that the purpose of the revised curriculum frame is to restore the pre NCF 2000 history books is a classic case of propagating falsehood to disorient the whole discussion and put it in a wrong track.

The proposed curriculum draft seeks to effect a paradigm shift in the philosophy of school education to make it less burdensome and more meaningful and relevant for the school going children would necessitate a drastic revision in the pedagogy prevalent in the Indian schools which includes an entirely new approach to the role of the textbooks in classrooms. The fact that the new curriculum draft makes a very strong recommendation that the teachers should not content themselves with only one textbook and should be able to use many books to expose the students to different approaches means that the schools are not to be treated as spaces to spread some official knowledge. The aim of school education is to enable the students to examine critically different ideologies obtaining in the society with a rational mind and with a view to ensure that knowledge makes the society more democratic, more committed to the ideas of equality and justice and more open to the ways of discussion and negotiation to resolve differences peacefully.
The pedagogical strategies suggested in the proposed curriculum frame seek to end the tyranny of a single, official textbook in all subjects. Multiplicity of reading material is what it argues for. It asks the teachers and the education planners to help students develop a questioning mind and a rational attitude. They are not treated as consumers of some pre cooked knowledge but are seen as constructors of knowledge. It , therefore , in radical departure from the earlier curriculum documents, reposes its faith in the agency of the student.

The effort of the proposed curriculum draft to democratize the school space asks for an open discussion on the pedagogy involved in various subject areas like Mathematics, Language, Science, social Sciences. History, however crucial in may be, is only one of these subject areas. To reduce the debate on school education to History is a sinister attempt by certain political elements to deprive our school goers of a meaningful schooling experience. The new curriculum draft privileges the experiences of Women, Tribals, Dalits, Schedule Castes and other marginalized societies which is not acceptable to the advocates of CUTURAL NATIONALISM.

We call upon the members of the civil society to enter this debate on the nature of School education and see to it that the system to ensure an education which is relevant, meaningful and of interest to the children of India, is humane and helps to promote peace is in place and State agencies fulfill their commitment to make it a reality.

Friday, June 10, 2005

हुजू़र आते-आते बहुत देर कर दी

रुपेश, लंदन.

जिन्‍ना और आडवाणी को सत्ता पाने के लिये धर्म के दुरुपयोग से कोई परहेज नहीं
था , लेकिन इनके अनुसार सत्ता चलाने के लिये धर्मर्निपेक्षता का ढोंग करना जरूरी
है। आडवाणी का दुर्भाग्‍य यह है कि उन्‍होंने धर्मर्निपेक्षता का ढोंग करने मे भी देर कर दी क्‍योंकि अब उनके हाथ से सत्ता भी निकल चुकी है।
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His summoning the Jinnah ghost betrays his admiration for Kaide- Ajam
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Praveen Priyadarshi, Delhi
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The whole Jinnah-Adwani episode is quite intersting. I do have a take on it in terms of real politic also as to what Lauh-Purush wanted out of it, but here i want to talk about something else.

In fact i believe, Adwaniji really admire and adore Jinnah, not only for his vision to have a homeland for his religious brethren, but also for having exploited and manipulated the Indian politics of 1940's for successfully creating one. And while the general tone of his remarks were by no means unintentional and unplanned and to carve out a liberal image for himself [target of this image makeover being not only Pakistani opinion makers and NDA allies at home, but also the US], but his summoning the Jinnah ghost betrays his admiration for Kaide- Ajam. I have two reasons in mind in favour of my argument. One, his remark on Babri was perhaps enough to get the media talking about what he was trying to potray. And no one really expected him to praise Jinnah.

Second, if he wanted to carve out a liberal face rather forcefully, he could have talked about Gujrat riots, for which he shared the responsibility as the home minister [as he did for Babri demolition]. But prasing Jinnah was something he could have done with much more conviction and convenience. And hats off to the media! For letting him go without asking, what about Gujrat Adwaniji? How do you rate that? Jinnah was secular alright but what about the fact that a part of Indian state turned so murderously communal under your leadership? How do you feel about that? Or was it a lab experimentation of the half a century old formula that Jinnah used so successfully?

Thursday, June 09, 2005

उत्तरऔपनिवेशिक राष्‍ट्रवादी पहचान की भूल-भुलैया

मोहम्‍मद अली जिन्‍ना पर शुरू हुआ यह विवाद उत्तरऔपनिवेशिक राष्‍ट्रवादी पहचान के संकट और भटकावों को एक बार फिर रेखांकित

करता है।धर्म , राषट्रीय-अस्‍मिता और आधुनिक राष्‍ट्र- राज्‍य के असहज और जटिल रिश्‍ते की
तल्‍ख़ी एक बार फिर उजागर होकर सामने आ रही है।


उत्तरऔपनिवेशिक मध्‍यवर्ग की एक परेशानी यह है कि वह आधुनिक राष्‍ट्र-राज्‍य को
अंगीकार भी करना चाहता है और

नकलची होने से भी बचना चाहता है।प्रमाणिक अस्‍मिता की तलाश उत्तरऔपनिवेशिक

मध्‍यवर्ग के एक तबके को अगर एक ओर धर्म(हिन्‍दुत्‍व या इस्‍लाम) की सर्वथा
अविवेचनात्‍मक(uncritical) व्‍याख्‍या के बचाव के लिए और उस पर

आधारित राजनीतिक- सामाजिक गोलबंदी की ओर प्रेरित करता है , तो

दूसरी ओर उसकी जीवन-शैली आधुनिक राष्‍ट्र-राज्‍य को उसके लिए अपरिहार्य बना देती
है।उसे धर्म आधारित राष्‍ट्रीय पहचान तो चाहिए लेकिन धार्मिक शासन(theocracy) में वह
असहज महसुस करता है। मध्‍यवर्ग की इस भावनात्‍मक उलझन का एक हद तक

व्‍यावहारिक राजनीतिक उपयोग करने के बाद जिन्‍ना और आडवाणी जैसे नेता खुद ही इसमें
उलझ जाते हैं।


जिन्‍ना के व्‍यक्‍तित्‍व और राजनीतिक जीवन में हम जिस नाटक को घटित होता देख चुके हैं
उसी का प्रतिबिम्‍ब(mirror-image perceptions) हमें भाजपा नेतृत्‍व की इस खींचतान में
देखने को मिल

रहा है जिसके केन्‍द्र में फिलहाल आडवाणीजी हैं।


वैसे गाँधीवादी सर्वधर्म समभाव बनाम नेहरूवादी शास्‍त्रीय

धर्मनिरपेक्षता की बहस,नेहरू बनाम जिन्‍ना की बहस से अधिक सर्जनात्‍मक है, लेकिन

Sunday, June 05, 2005

मुक्त जनपद



जनपद की अवधारणा में स्‍थानीयता के साथ ही एक खुलापन और विस्‍तार है इसलिए जनपद अधिक समावेशी सामाजिक-सांस्‍कृतिक धारणा है।

वैशाली जनपद कहाँ से शुरू होकर कहाँ मिथिला और कहाँ मगध में घुल-मिल जाता है इसकी परवाह न मिथिला को है, न मगध को और न ही वैशाली को।

औपनिवेशिक सत्ता और उसकी कोख से उपजा उत्तर औपनिवेशिक राष्‍ट्र-राज्‍य जनपदीय बोलियों की गणना करता है और जनपद को उसकी हद्‌द में बाँध कर रखना चाहता है।



हमारे समय के विराट लोकतांत्रिक विश्‍व में कहाँ किस हाल में है जनपद?बकौल कवि श्रीकांत वर्मा-


मगध
मगध नहीं रहा
सभी हृष्‍टपुष्‍ट हैं
कोई नहीं रहा कृशकाय
किसी में दया नहीं
किसी में हया नहीं
कोई नहीं सोचता,जो सोचता है
दोबारा नहीं सोचता।

पुनः

कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,
कोसल में विचारों की कमी है!

वर्गीकरण,अपवर्जन और सीमांकन की सभी कोशिशों के बीच नगर-जनपद समेत समस्‍त जनपद अलगाव और ठहराव के दौर से गुजर रहे हैं।

पर जनपद महज जन का था ही कब ?

जन थे तो अभिजन भी थे।
काशी में बाम्‍हन थे और जुलाहे थे -और उनके बीच का कश-म-कश था।जनपदीय गणराज्‍य की निर्मिति तब भी एक अनवरत अस्‍थिर परिघटना ही थी।

तो क्‍या वैशाली और कोसल हमारी स्‍मृतियों का कम और हमारी कल्‍पना का गणराज्‍य अधिक है ?


कोसल मेरी कल्‍पना में एक गणराज्‍य है

कोसल में प्रजा सुखी नहीं
क्‍योंकि कोसल सिर्फ कल्‍पना में गणराज्‍य है।

बहरहाल बेहद जरूरी है कि हम इस इंसानी तसव्‍वुर को बनाये रखें। यह जरूरी है क्‍योंकि अब भी ऊँट हमेशा के लिए किसी एक करवट बैठ नहीं गया है।बैठना भी चाहे तो हम उसे बैठने नहीं देंगे।



मित्रों! इस मुक्त आभासी जनपद में हम(मैं!) आप सब की बाट जोहेंगे।भाषा का कोई बंघन नहीं-अंग्रेजी,हिन्‍दी या हिंगलिश कुछ भी चलेगा।संसकिरत कबीरा कुप जल भाखा बहता नीर-सो पंचमेल खिचड़ी हो तो कोई हर्‌ज नहीं।विषय की भी कोई खास सीमा नहीं,गोया हम अपने जनपद -वैशाली,मिथिला,मगध,अंग आदि -की बात ज्‍यादा करेंगे ,पर बेशक आपकी इतर जनपदीय बातों को भी तव्‍वजो देंगे।

हमारा समय नेटजाल की मायावी दुनिया में नरभसाने का नहीं है,यह अपने मन माफिक बोलने और चहकने का दौर है।

आमीन

टिप्‍पणी

अनूप शुक्ला said...


स्वागत है मनोज जी आपका- हिंदी चिट्ठाजगत में।


4:17 AM
Raman said...


हिन्दी चिट्ठे की शूरूआत के लिये बहुत बहुत बधाईयां
7:10 AM


Bihari Hawk said...


मनोज जी, इस द्विभाषी Blog शुरूआत करने के लिये धन्‍यबाद।हम भी आपके इस मुक्‍त जनपद का हिस्‍सा होना चाहते हैं।मुझे कृपया ये बतायें कि मैं कोइ Original Blog कैसे Post कर सकता हुँ?
4:02 PM



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